तेरी याद जब करीब से गुजरती है
खुद को टूटे पुल पर खड़ा पाता हु
आगे की सुध न पीछे का खयाल
मैं लड़खड़ाता हु घबरा सा जाता हु
अंधाधुन्द गए वक़्त की परछाईया,
बेबस लौटते सिपाही की, नवेली दुल्हन की तरह जकड़ लेती है।
नरम उंगलियों की एहसास, अब भी तेरे होने का ज़िद करता है।
मेरे काँपते होंठ,
तुम्हरे चुम्बनों का हस्ताक्षर लिए, दर दर पता पूछती फिरती है
उन आसमानों में ढूढ़ती है, फिर से वही दूधिया खरगोश,
चार आँखों ने जिनको सुबह से शाम,
रंगों से बुना,
पीछा किया।
अब शाम हो चली है
घर आने को देर न करना।
इंतेज़ार
खत्म कर दो मेरा!
हाथ पकड़ कर,
पुल पार करा दो प्रिय।
मानव
Reblogged this on How I write nothing.
LikeLike
Nice work
LikeLike